Saturday, September 16, 2017

"तुम्हारे बाद कौन"

मुझे तुम्हारी ठूंठ शाखों की छावँ चाहिए,
उकताए होंठों पर अरसे से ठहरा हुआ यह मुक्ति का गीत
अब बेस्वर महसूस होता है।
मुझे एक सदी से लम्बी ऊब की आकांशा है,
जहाँ तुम्हारी गोद में नीरसता के
तमाम दहकते हुए अंगारों के मध्य
मैं तिल तिल कर जलता रहूं
और जीने के स्वाद से भीगता हुआ झूलता रहूं
इस दुनियावी अटकलों के बीच।
मुझे बुद्ध की प्रतिमा में सिर्फ इतना नज़र आता है कि
वह कौन से रंग से रंगी गयी है..
स्वर्ण वर्ण की हर प्रतिमा मेरी आँखों में ताब लाने को प्रयाप्त है..
मैं तुम्हारी स्वर्णिम देह की कामना में
ताउम्र एक तामसी असुर की तरह आसन लगा कर
कड़ी तपस्या के सभी मूलों पर खरा उतर जाऊंगा।
मुझे समाज में पनप रहे इन स्वयं घोषित देवों की प्रखर मार,
काटक शक्तियों का अब कोई भय नहीं।
बस तुम्हारी आँखों की पपोटों को यातनाओं की चुभन भी अगर बुझा जाये,
तो मेरा स्वार्थी मन कहीं चैन नहीं पायेगा।
तुम्हारे बाद कौन होगा जिसकी मैं कामना करूँगा,
कौन होगा जो मुझमे लालसा, लिप्सा व क्रूरता की गहराईयों को जगायेगा।
कौन होगा जिसके लिए मैं बिना उद्देश्य लड़ता हुआ भी,
ख़ुशी ख़ुशी वे सभी घाव स्वीकार कर
किसी अन्य की पीठ पर वार करूँगा।

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