Friday, September 25, 2015

"पहाड़"



वे अपने घरों की बाखलियों से एक टक
पहाड़ों के उस पार दूर से देखा करते थे शहरों को
रात के अन्यारे में वाहनों की हैड लाइट
और आकाश के तारों के मध्य कहीं चमकते थे उनके स्वप्न।

पुरखों द्वारा बनाये मंदिरों में दिन रात का मंत्रोचारण था
उनके हाथ "नमस्कार" में व सिर श्रद्धा में झुके रहते थे..
वहां आस-पास एक विचित्र शान्ति भरी थी
हर ओर से देवदारों की निगरानी में
उनके निवास सुरक्षित थे,
उनके दरवाज़ों ने ताले नहीं देखे थे...

उनके मनीऑडरों में भी हालाँकि कभी तीन रकमें नहीं देखी गयीं
फिर भी जुन्याई(चांदनी) रातों में
उनकी मुरली की धुनें दूसरे गावों तक सुनाई पड़ती..

करीबियों के चेहरे राशनकार्डों पर लगभग धुँधले पड़ चुके थे
परन्तु उनके घरों में दीप सदा प्रज्वलित रहे...
टेलीग्रामों पर उतरे शब्दों की स्याही अक्सर फैली होती
पर फिर उन्होंने खेतों में उम्मीदें गोढ़ी थीं..

जबकि उनके वहां आगंतुकों का आना एक गंभीर बात थी,
उनके चूल्हों ने अस्वीकार में कभी खांसी नहीं की...

उनके पटांगणों में एक ओखल थी, एक घास का लुट,
कुछ टूटे खिलौने, चार लकड़ियाँ, फुकनी,
एक लदी मातृ देह और दो घुटनों पे सरकती हसरतें ..

उनके मासूम पदचिन्ह
अब भी अमिट हैं वहां की पगडंडियों पर...
हिमाला जिन्हें वे गिना करते थे अक्सर खेलों में
जबकि उनके माथे पर दिखने लगी हैं लकीरें,
हैं, खड़े हैं, झुके नहीं हैं तलक दिन..

गाय बकरियों भेड़ों के श्वासों के साथ-साथ
उनके स्वर गूंजते हैं ढलानों पर आज भी,
जुगनू जिनके पीछे वे भागा करते थे
आज उनकी आँखों में नज़र आते हैं...

वे कद काठी से कमज़ोर हैं और दिखने में सामान्य
परन्तु आज भी साक्षात्कारों में उनके परिचय हैं
"पहाड़" !

5 comments:

  1. शब्द लहराकर हर तरफ जाते हैं
    कोई रख देता है उसे रोटी में
    कोई मटकी में
    कोई बुहारकर निकाली गई धूल में
    कोई टांग देता है कंदील संग
    रात के अँधेरे में !
    शब्द छुप जाते हैं
    झांकते हैं दरवाज़े की ओट से
    बिस्तर के नीचे से
    खिड़कियों से
    जागी आँखों सोयी आँखों से
    उनींदे ख्यालों से ...
    जब नहीं दिल करता उनके संग खेलने का
    तो हठी की तरह
    पालथी मार बिस्तर पर बैठ जाते हैं
    सुबह की चाय के लिए ...
    हर घूंट में भाव भरते हैं
    फिर गीतों संग बहकते हैं ...
    ये शब्द नाम बन जाते हैं
    चेहरे में ढल
    मुझसे बातें करते हैं
    मेज पर पड़ी मेरी कलम
    मेरी उँगलियों के बीच आती है
    या मुझे अपने बीच करती है
    इससे अनजान मैं
    उन्हें पिरोती हूँ , पिरोती जाती हूँ
    वे मुझे आवाज़ देते हैं
    कभी किसी की मटकी से
    कभी रोटी से
    कभी धूल से
    कभी कंदील की रौशनी से .....
    इस गहरे रिश्ते को
    मैं गंवाना नहीं चाहती ..... तो करती हूँ कभी अवलोकन, कभी मील के पत्थरों में ढूँढती हूँ, और ले आती हूँ आप सबके बीच :)

    http://bulletinofblog.blogspot.in/2015/12/2015_8.html

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  2. बहुत सुन्दर
    पहाड़ कभी बूढ़ा नहीं होता ..तन कर खड़ा रहता है हरदम तत्पर ..

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  3. वाह, पहाड के वासियों की जिंदगी को मुखर कर दिया आपकी इस कविता ने।

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  4. The inherent power of a work is never buried or long imprisonment. A work of art may be forgotten the time, may have been banned, may be buried in a coffin, but something always powerful thing is not too big to overcome future.
    ____________________________
    I like: FIFA 16 Coins XBOX ONE and FIFA 16 Coins PS4

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