Wednesday, January 14, 2015

"ए सिनॉप्सिस"

कहानी ज़र्द पन्नों में दर्ज़ प्राण, आभ्यंतर विकसित अपेक्षाएं व उम्मीद आधार। 
इतनी जिवंत कि उस अंतराल में उससे इतर यथार्थ कुछ नहीं... 
मृदु अतः मूढ़ नक्काश। 
आकृति- किरदार परदराज़ अंतिम आकाश में अभी तक धुँधली अब अदृश्य। 
भाव ढाँचे से निकलकर अपने मौलिक आवरण में स्थापित व शब्द गल कर पुनः कच्छ। 
अधघटे किस्सों के ढेर में गर्द में लिपटे संवाद।
......स्मृति पटल पर मंचित यह एक उदासीन रंगमंच।

No comments:

Post a Comment