Thursday, June 20, 2013

" हुं भगवान् कुछ नहीं होता "











देखो भईया लिखने पढने से तो कुछ होगा नहीं, न वो जानें ही वापिस आएँगी जो बह गयी अलखनंदा में, न वह महान केदार ही पुन: स्थापित हो पायेगा बिलकुल उस तरह जिस तरह चंद घंटों पहले था|
बसा भी लिया गया अगर मरम्मत पुताई से तो भी सेकड़ों शवों के निशान न मिट पायेंगे | कितने भक्तों ने अपने ही आराध्य के घर मषाण देखा है। लोगों की चीखें क्या भगवान् के कानों तक नहीं पहुंची? ऐसा क्या हुआ की सब उजड़ गया परन्तु भगवान् अभी भी स्थापित है वहां, आसन मोड़ के धरना दिए हुए हैं। सिर्फ वही हैं, जो जूझ रहे हैं प्रकर्ति के भीषण प्रकोप से। क्या भक्तों को बचाना उनका धर्म नहीं? क्या भगवान् भी व्यक्ति-विशेष की तर्ज पर खुद के बारे में सोच कर चुप रह गए और आँखें मूँद कर बेठे रहे अपने स्थान पर की जब लोग पूछेंगे की "क्यूँ कुछ नहीं किया जब तुम्हारे भक्त तुम्हारे ही घर में भीषण रुदन कर रहे थे, क्या वो चीखें नहीं पहुची तुम्हारे कानों तक जबकि वो तो तुम्हारे ही गिर्द थीं?" "तो कह दूंगा की मैं समाधि में लीन था व मुझे कुछ नहीं दिखा, या फिर प्रकर्ति के आगे मेरा कोई वश नहीं, या की मत पूजो मुझे मैंने कब कहा है।"और यहाँ एक संकेत फिर से उजागर हुआ की भगवान् कुछ नहीं होता। सभी नास्तिकों के लिए आज ये एक उत्सव का माहोल है। उनका कहना भी सार्थक है की अगर भगवान् होते तो क्या ये भीषण विध्वंस हो पाता। सभी नास्तिक अपने घमंडी सिरों को उंचा कर, ऊँचे ऊँचे आलाप लगा कर भगवान् की नाकामी के गीत गाने को तैयार होंगे। उनके हिसाब से श्रधा, प्रेम, समर्पण, भक्ति व भगवान् सब निरर्थक साबित हुआ है, आज जीत का जश्न होगा, सत्य सार्थक हुआ है, स्पष्ट दिखा है परम पवित्र केदार भूमि पर। और एक दारु की बोतल लिए उसी गंगा तट पर पैग लगायेंगे जहाँ की रोज़ सुबह और शाम गंगा माँ की पूजा की जाती है, नशे व अपने घमंड के मत में चूर "गंगा की माँ की..." और न जाने कौन कौन सी गालीयां निकाल कर अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करेंगे। पास के जंगल में जाकर बरसों पुराना जो पेड़ खड़ा है उसको जड़ से काट कर वहां होटल बनाने की तयारी शुरू कर देंगे। अब अपनी बुरी नज़र गंगा में गडा कर उसे कम से कम 300  बांधों से भेदकर पर्याप्त बिजली(पर्याप्त लाभ) बनाने की मंशा में लग जायेंगे।
देश हित के नाम पर पहाड़ों को काटेंगे, सड़कें(और लाभ) बनायेंगे और देश को सच्चाई से अवगत कराएँगे की ये भगवान् कुछ नहीं होता।
जगह जगह घाटों पर फैक्टरियां लगवाएंगे और अधिक लाभ कमाएंगे, कचरे का क्या है डाल देंगे गंगा में कौन सा बहुत साफ़ है, पहले से ही मैली है।
पूछे जाने पर की "ये प्रकृति से छेड़-छाड़ अच्छी नहीं, क्या तुम्हें भगवान् से डर नहीं लगता?" एक जोर का ठहका लगा कर लोगों को और उनके भगवान् को नज़रंदाज़ कर अपने मुनाफे की सोच में फिर से काम पर लग जायेंगे।
पूरा दिन कमा कर रात को महंगे बारों में अंग्रेजी शराबों में डूब कर आपसी बात-चीत में ये कहेंगे की "भगवान् जो होता था क्या बचा न लेता उस त्रासदी को, "हुं भगवान् कुछ नहीं होता|"                

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